Thursday, August 2, 2007

और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रख़्ख़ा क्या है
[दरख्शाँ:shining हयात:Life]
[ग़म-ए-दहर : sorrows of the world]
[ आलम: world सबात: permanence]

तू जो मिल जाए तो तकदीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैंने फक़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
[निगुँ : Change फक़त: only वस्ल: union/meeting]

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

अनगिनत सदियों के तारीक़ बाहिमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलास-ओ-कमख्वाब में बुनवाए हुए
जा-बा-जा बिकते हुए कुचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथडे हुए ख़ून में नहलाए हुए
[तारीक़ बाहिमाना तिलिस्म: dark dreadful magics]
[रेशम:silk; अतलास:satin; कमख्वाब:brocade]

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तानूरों से
पीप बहते हुई ग़लते हुए नासूरों से
[आमराज़ : diseases, तानूर: ovens]
[पीप:pus, नासूर: ulcer]

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीज़े
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीज़े
[दिलकश: heart-winning]


और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

Faiz Ahmad Faiz

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